यह अमरबेल है जनाब! ऊपर से नीचे आती है

0
1948

-लक्ष्मीकांता चावला

कभी-कभी एक अच्छा समाचार मिलता है। सरकारी सूत्रों से केंद्र सरकार के इस निर्णय की जानकारी मिली है कि भारत सरकार बहुत से सुस्त और भ्रष्ट अधिकारियों को जबरी सेवानिवृत्त करेगी। सरकार का उद्देश्य तो निश्चित ही यह है कि प्रशासनिक कार्यों में शिथिलता और भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए। इससे पहले भी पिछले कार्यकाल में श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने बहुत से उच्च पदस्थ अधिकारियों को रिटायर किया। यूं कहिए सरकारी तंत्र से बाहर किया। अब प्रश्न यह उठता है कि यह उच्च अधिकारी भ्रष्ट और सुस्त क्यों हो जाते हैं? सही तो यह है कि एक बहुत बड़ी संख्या में हमारे अधिकारी देश और जनता की सेवा के लिए सरकारी सेवा में आते हैं, कार्य करते हैं, पर दुख के साथ कहना पड़ता है कि उनकी संख्या भी अब कम नहीं जो सरकारी सेवा में आने के साथ ही बड़े साहब बन जाते हैं, अपने रौब का दबदबा जनता में और जूनियर अधिकारियों में बनाकर रखते हैं। निसंदेह शासकों में अर्थात जनप्रतिनिधियों में से कोई न कोई इनका माईबाप बना रहता है। कुछ ज्यादा हिम्मती हैं वे इस राजनीतिक माईबाप से भी बड़े हो जाते हैं। उनको अपने इशारे पर चलाते हैं। अब प्रश्न यह है कि कुछ सुस्त, भ्रष्ट अधिकारियों को पहचान कर उनको सेवानिवृत्त करके क्या देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगा? हो जाए तो बहुत अच्छा है, पर याद रखना होगा भ्रष्टाचार अमरबेल है जनाब! यह ऊपर से नीचे आती है।

जब आज के ऊपर वाले लोकतंत्र के स्वामी, संसद और विधानसभाओं में बैठे माननीय आॅनरेबल बहुत बड़ी संख्या में दागी हैं, आरोपी हैं, अदालतों में मुकदमे भुगत रहे हैं और जिस धनबल से वे चुनाव जीतकर आए हैं उसका भी कोई लेखा जोखा नहीं। बहुत बार सरकारों को भी मैंने लिखा और चुनाव आयोग को भी कि कोई एक दो उम्मीदवारों के खर्च के विवरण पर ही कभी-कभी अंगुली उठाई जाती है तो क्या यह मान लिया जाए कि देश के सभी चुनाव जीतने या हारने वाले उसी सीमा में धन खर्च करते हैं जितना सरकारी ने निश्चित किया है। वैसे तो अगर संसद के लिए 75 लाख की सीमा रखी गई है तो इतनी राशि भी कोई अपनी जेब से या जिसे एक नंबर की कहते हैं, वह नहीं खर्चते। न जाने क्यों वे बड़े-बड़े अधिकारी जो चुनाव पर्यवेक्षक बनकर आते हैं उन्हें यह सब नहीं दिखाई देता कि कैसी गंदे पैसे की नदियां चुनावों में बहती हैं। शायद ही कोई हिम्मत करके बता सके कि उसने कितना धन खर्च किया। फिर वही सवाल, यह इतना धन अगर अपनी कमाई का है तो कमाया कैसे? उसके लिए आयकर किस-किसने दिया? अगर यह बड़े-बड़े उद्योगपतियों या किसी माफिया से लिया है तो उनके इस धन के एवज में उन्हें लाभ भी तो दिया होगा या दिया जा रहा है। यह अपवित्र गठजोड़ जब तक बना है तो धीरे-धीरे हमारे अधिकारी भी इसी का हिस्सा बन जाते हैं। सच यह भी है कि कमजोर जनप्रतिनिधियों को ये बड़े अधिकारी अपने हाथों की कठपुतली बना लेते हैं। सत्य यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहती है उसे सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया, चुनाव खर्च पर नियंत्रण और किसी भी प्रकार के अपराधी को वह अदालत से दंडित है या नहीं, उसे टिकट नहीं देना चाहिए। जिस लोकतंत्र को हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं उसका एक कुरूप दृश्य तब दिखाई देता है जब हाॅर्स ट्रेडिंग अर्थात मार्केट में बेचने खरीदने की बात जनप्रतिनिधियों के लिए कही जाती है। जिन पर लाखों लोग विश्वास करके उनके लिए मतदान करते हैं उन्हें छिपा छिपा कर कभी कर्नाटक के होटल में, कभी राजस्थान या भोपाल के होटल में इसलिए रखा जाता है कि उन्हें कोई खरीद न ले। वे दल बदल न कर जाएं। जो दल बदल करते हैं वे किसी भी पार्टी के हों या कोई भी पार्टी ऐसे दल बदलुओं को स्वीकार करती है, वह बेईमानी और भ्रष्टाचार को खुली मान्यता दे देती है। आज देश के बड़े-बड़े राजनीतिक पदों पर बैठे लोग, संसद में भी पहुंचे माननीय दल बदलकर आए हैं। कभी टोपी बदल ली, कभी चुनाव चिन्ह, कभी चुनावी झंडे का रंग और कभी भाषणों का ढंग बदलकर चुनाव जीतने वाले कम से कम उस जनता के वफादार नहीं हो सकते जो जनता उन्हें अपना भाग्य विधाता बनाती है।
वैसे भ्रष्टाचार साक्षात घूम रहा है। बिहार में अगर एक बड़ा पुल चार सप्ताह बाद ही टूट जाता है, पंजाब में कीड़ों से भरा करोड़ों का आटा एक नगर में बांटा जाता है, मध्यप्रदेश में आठ करोड़ का चावल ही घटिया देकर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ किया जाता है, मध्यप्रदेश का व्यापम व पंजाब का छात्रवृत्ति घोटाला कहीं दब गया है, कहीं दबा लिया जाएगा। जिस देश में बड़े-बडे़ संवैधानिक पदों पर योग्यता नहीं, राजनीतिक वफादारी देखकर नियुक्तियां होती हैं, जहां विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर भी किसी की चापलूसी और चरणवंदना करके ही बड़ी अकड़ के साथ अपने पद पर पहुंचते हैं, जिस देश में सरकारों की पूरी जानकारी में बड़े-बड़े मेडिकल और इंजीनियरिंग प्राइवेट काॅलेज देश का भविष्य बनाने वाले युवकों से मोटी रिश्वत लेते हैं वे रिश्वत के बल से डाॅक्टर, इंजीनियर बने फिर कैसे ईमानदारी से काम करेंगे। अगर सरकारों में हिम्मत है तो एक घोषणा कर दें कि देश के किसी भी इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा उच्च शिक्षा देने वाले प्राइवेट काॅलेज में कोई डोनेशन के नाम पर रिश्वत नहीं ली जाएगी या नहीं ली जा रही तब भी भ्रष्टाचार पर नकेल एक प्रतिशत ही सही आएगी। सरकार याद रखे जरा प्रधानमंत्री जी कभी बड़े-बड़े प्रोजेक्टों की निर्माण करने वाली कंपनियों के मालिकों से प्रबंधकों से एक बार पूछ लें कि उन्हें टेंडर स्वीकार करवाने के लिए कितने प्रतिशत देना पड़ता है। सरकारें भ्रष्टाचार को मजबूरी कहती हैं। पुलिस स्टेशन की, रेलगाड़ी की, चैक चैराहे की, तहसील-कचहरी की रिश्वत की बात वह हर व्यक्ति भुगतता है जो वहां जाता है।

कल जब प्रधानमंत्री जी नए पुलिस अफसरों को संबोधित कर रहे थे, एक बात उनकी बहुत अच्छी लगी कि मानवीय भावना से जाओ। पहले दिन ही दबंग न बनो, पर एक कटु सत्य निश्चित ही उन्होंने निकट से देखा या महसूस नहीं किया। लाॅकडाउन में पुलिस का मानवीय चेहरा सामने आया है। निश्चित ही पुलिस ने सेवा की है, पर उसके चेहरे पर कुछ ऐसे भद्दे दाग भी लगे हैं जिसे धोने के लिए शायद कोई तंत्र नहीं है और औषधि नहीं। क्या तमिलनाडु की पुलिस उस पिता पुत्र को जीवित कर सकेगी जिन्हें लाॅकडाउन का उल्लंघन करने पर थाने में तड़पा-तड़पा कर मार डाला या पंजाब में मास्क न पहनने पर दो भाइयों को इतना पीटा कि चमड़ी उखड़ गई और अर्द्ध बेहोश हो गए। इसलिए कुछ ऐसा करना होगा कि भ्रष्टाचार के साथ ही शासकों के हाथ साफ हों। पंजाब में डाॅक्टरों की भर्ती के समय पंजाब लोक सेवा आयोग के द्वारा किए जाने के बाद एक पत्र मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री जी को, स्वास्थ्य मंत्री होने के नाते लिखा था। काश! उस पर कार्यवाही हो जाती या आज वह पत्र ही सरकार के रिकाॅर्ड से निकल आए तब पता चलेगा कि भ्रष्टाचार कौन पालता है और कैसे उसके साथ समझौता किया जाता है। इसलिए फिर एक बार कह रही हूं भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर नहीं जाता, उुपर से नीचे आता है। शुद्धिकरण ऊपर से शुरू हो श्रीमान जी। यह अमरबेल है, ऊपर से नीचे आ रही है।