-लक्ष्मीकांता चावला

भारत के सहृदय चिंतकों ने जो संविधान हमें दिया उसके प्रारंभ में प्रथम वाक्य था- हम भारत के लोग। इसमें कहीं भेदभाव नहीं था कि भारत के गरीब लोग या अमीर लोग। शिक्षित या अशिक्षित, दूर सागर के किनारे किसी गांव में रहने वाले या दुर्गम पहाड़ियों की चोटियों के आसपास बसे लोग, संविधान में तो भारत के सभी लोगों को शिक्षा, रोटी, समानता, जीवन की सुरक्षा आदि अधिकार दिए। बहुत सुहावना लगता है संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को पढ़ना और सारे संविधान का अध्ययन करना, पर आमजन धीरे-धीरे बहुत बेचारा हो गया। बाढ़ में उजड़ना, गर्मी या सर्दी में मरना, सस्ते राशन की आशा में पूरा-पूरा दिन लाइनों में खड़े होना, डांट खाना, मजदूरी करके भी पूरी मजदूरी न मिलना ये सब मुसीबतें हिंदुस्तान के आम आदमी ने अपनी किस्मत समझ लीं। देश के शासक इसलिए निश्चिंत हो गए क्योंकि भाग्यवादी गरीब आदमी हर मुसीबत को, शोषण को, तिरस्कार को, धिक्कार को अपना भाग्य समझकर सह लेता है। बिना दवाई के मर भी जाता है और पढ़ाई का तो प्रश्न ही नहीं, जब पेट भूखा होगा। भारत में आज भी बीस करोड़ लोग भूखे सोते हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं, मेरे नहीं। भारत सरकार यह घोषणा करती है कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है अर्थात अस्सी करोड़ लोग अभी भी स्वावलंबी नहीं हो पाए, रोटी-रोजी के लिए। इन दिनों देश के बहुत से प्रांतों में जो बाढ़ आ रही है वह भी कोई नई नहीं। ब्रह्मपुत्र नदी में हर वर्ष बाढ़ आती है। बिहार की बाढ़ भी बहुत कहर ढहाती है।

देश के बहुत से प्रांत ऐसे हैं जहां हर वर्ष बाढ़ कहर ढहाती है। सरकार जानती है यह बाढ़ आएगी। हैरानीजनक अफसोस यह है कि जब बाढ़ का मौसम बीत जाता है और लोग टूटे मन-तन से वापस जाकर अपने कच्चे पक्के घरों में शरण लेते हैं और महीनों तक मुआवजा या सहायता पाने के लिए एड़ियां रगड़ते रहते हैं। तब पूरा साल देश और प्रदेश की सरकार क्यों नहीं सोचती कि कुछ ऐसा प्रबंध किया जाए कि आगामी वर्षों में लोगों को तकलीफ न सहनी पड़े। आकाश से बिजली गिरी, यह प्राकृतिक प्रकोप है, पता नहीं कहां हो जाएगा। उत्तराखंड में भूस्खलन और पहाड़ों के खिसकने से जो तबाही हुई वह पुर्वानुमानित नहीं, पर फिर भी इसके लिए शासन प्रशासन को इतना तो करना ही चाहिए कि जहां ऐसे प्राकृतिक प्रकोप हर वर्ष होते हैं वहां से लोगों को हटाकर सही स्थानों पर बसाया जाए। ऐसा कभी नहीं होता। मरने वालों के लिए पांच-पांच लाख रुपये के चेक लेकर सरकारें पहुंचती हैं। जैसे कोई बहुत बड़ा अनुदान दिया जा रहा हो। वैसे ही जैसे गोरखपुर में एक चैदह वर्षीय बालक अपहरण के बाद मारा गया। तब भी वहां सरकार पांच लाख रुपये का चेक लेकर ही पहुंचती है। यह तो घावों पर नमक से भी ज्यादा भयानक कष्ट देने वाली बात है। अब बात बाढ़ की हो तो असम में इस बार चालीस लाख लोग बाढ़ की चपेट में आकर बेघर हो चुके हैं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 17 लाख लोग उजड़ गए और यह सूचना दी गई है कि इन दोनों ही प्रांतों में 198 से ज्यादा लोग बाढ़ के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठे। इसमें कोई संदेह नहीं कि बाढ़ आने के बाद सरकारें आपदा प्रबंधन के लिए बहुत काम करती हैं। लोगों को पानी से बचाना, सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना, सरकार की ओर से रोटी दी जाना किया जा रहा है, पर सवाल यह है कि जो मुसीबत हर साल आने वाली है उसका कोई इलाज क्यों नहीं? ब्रह्मपुत्र को नहीं रोक सकते, कोसी नदी की धारा को भी नियंत्रित नहीं किया जा सकता, पर वहां रहने वाले लोगों को तो धारा कोप के स्थान से दूर तो बसाया जा सकता है।

बाढ़ पीड़ित, कोरोना पीड़ित आम आदमियों के लिए वह अस्पताल हैं जहां थोड़ी सी बारिश बाढ़ बनकर आती है। अस्पताल में इतना पानी भर जाता है कि डाॅक्टर और अन्य स्टाफ घुटनों तक पानी में काम करता है। रोगियों की चारपाइयां पानी में डूबती हैं। कितनी दुर्दशा होती है गरीब आदमी की सरकारी अस्पतालों में विशेषकर इन दिनों जो बिहार का दृश्य देखा वह मुंह बोलती तस्वीर है। एक अस्पताल में तो छत से ही मानों झरने बहने लगे और बेचारे बेबस मरीज वास्तव में तो डाॅक्टर बेबस हैं। सभी प्रांतों में डाॅक्टरों की संख्या कम, काम का बोझ ज्यादा और आजकल कोरोना के संघर्ष में सबसे ज्यादा डाॅक्टर और उनका सहकारी स्टाफ है, पर आम आदमी है न किसी को चिंता नहीं। एक बात सबने देखी होगी कि कोरोना के भय से अब इन अस्पतालों में बड़े-बड़े कैमरे लेकर नेताजी भी नहीं पहुंचते।

पुलिस हिरासत में मरने वाले पूरे देश में ही हम भारत के बेचारे लोग हैं। गरीब लोग हैं, जिनके केवल वोट लेकर सत्ता शिखरों पर पहुंचे लोग उनसे इतना दूर हो जाते हैं कि जब वे पुलिस हिरासत में पीटे जाते हैं, मर जाते हैं तो उनकी चीखें भी इन नेताओं तक नहीं पहुंचतीं। कोई वीआईपी या प्रसिद्ध व्यक्ति दुर्भाग्य से आत्महत्या कर ले तो कई बार प्रदेश से लेकर देश तक की सरकारें हिलती हैं। पुलिस से लेकर सीबीआई तक की गतिविधियां बढ़ जाती हैं, पर आज तक पूरे देश में कितने बेचारे आम लोग, हम भारत के लोग पुलिस की यातनाओं को न सहते हुए या जेलों में अमानवीय व्यवहार के कारण मर गए, मारे गए, फंदे पर लटक गए या लटकाए गए, इसकी कोई जांच नहीं क्योंकि वे हम भारत के लोग हैं, वी द पीपल आॅफ इंडिया नहीं। मच्छरों की मौत और पुलिस हिरासत में आम व्यक्ति की मौत में सरकारों को कोई अंतर दिखाई नहीं देता। अब पंजाब में शराब ने 41 लोगों की जान ले ली। यहां भी खास आदमी अमीर बनने के लिए आम आदमियों को खूब शराब पिलाते हैं। असली दोषी तो पीने वाले हैं, पर जिस गांव में शराब की भट्ठियां चलती हैं वहां के पंच-सरपंच सबसे पहले उत्तरदायी नहीं हैं? वहां के विधायक क्या नहीं जानते कि कौनसा जहर उन गांवों में परोसा जा रहा है जहां से शक्ति लेकर वे माननीय बन गए हैं। किसी ने कहा जहरीली शराब से मर गए और सच तो यह है कि जहरीले राजनीतिक सिस्टम से मर गए। क्या कोई पंच-सरपंच इलाके का एमएलए कह सकता है कि चुनाव के दिनों में इन भट्ठियों से शराब लेकर लोगों में नहीं बांटी गई। आम लोग इसी शराब से खुश होकर वोट देते हैं और अमीर इंडियन अंग्रेजी शराब से ही खुश होते हैं। एक तरफ तो देश अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी में हैं। विकास की बहुत लंबी-चैड़ी चर्चाएं की जा रही हैं, करवाई जा रही हैं पर विकास है कहां? बड़े-बड़े महलों में नहीं, गद्देदार तेज गाड़ियों में नहीं, अमीरों की कारों में नहीं, एयरकंडीशन्ड स्कूलों-काॅलेजों में नहीं। विकास की तो अभी प्रतीक्षा हो रही है। हर वर्ष बाढ़ से उजड़ने वाला, दवाई के लिए तड़पने वाला, स्कूल के दरवाजे पर बैठा छोटा सा बच्चा, गुब्बारे या गचक बेचने वाला, शराब से उजड़े परिवारों के लिए तड़पने वाले परिवार यह सब विकास की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं यह मानती हूं कि जब तक सारा शासन तंत्र और प्रशासन केवल अपनी सुख सुविधाओं में ही व्यस्त मस्त रहेगा तब तक आम आदमी को विकास के दर्शन नहीं होंगे। वे असहाय कभी सस्ती दाल पाने के लिए और कभी मुफ्त में साइकिल या गैस सिलेंडर पाने के लिए प्रतीक्षा में रहेंगे और जब मिल जाएगी तो जमीन तक सिर झुकाकर धन्यवाद करते रहेंगे। वे भारत के आम लोग हैं, पीपल आॅफ इंडिया नहीं।
शराब से तो लोग मरते ही रहेंगे, क्योंकि सरकार की सूची में शराब के ठेके जरूरी वस्तुओं की सूची में शामिल हैं।